Monday, December 13, 2010

भ्रष्‍टाचार की जांच तीन साल से फाइलों में बन्‍द पडी है

सतर्कता समिति

श्रीमान जिला कलेक्‍टर महोदयजी,

जिला कार्यालय जालोर|

विषयः- नगरपालिका भीनमाल द्वारा जारी किये गए पटटी की पत्रावली एवं भूमि के

दस्‍तावेजों की जांच कराने व पट्टा को निरस्‍त करने बाबत

मान्‍यवरजी,

उपरोक्‍त विषयान्‍तर्गत प्रार्थी रमेश कुमार गोदपुत्र भुरारामजी सुथार निवासी भीनमाल का निम्‍नलिखित निवेदन है कि-

नगरपालिका भीनमाल के अध्‍यक्ष श्रीमति सोहनी देवी मेहता, पार्षद एवं पूर्व अध्‍यक्ष श्री तेजराज मेहता (वर्तमान अध्‍यक्ष का पति), तत्‍कालिन अधिशाषी अधिकारी रामकिशोर माहेश्‍वरी, कनिष्‍ठ अभिन्‍यता श्री कैलाशजी एवं लिपि श्री नैनाराम बंजाराम भाट की मिलि भगत से सभी कायदे-कानून नियमों को ताक में रखकर नियमन की पत्रावली 77/2001 श्रीमती सुबटी देवी वेबा भूरारामजी सुथार के नाम पट्टा जारी किया गया है|

1) यह कि नगरपालिका के अधिशाषी अधिकारी रामकिशोर माहेश्‍वरी तो आदतन इस प्रकार के व्‍यक्ति है| अधिशाषी अधिकारी रामकिशोर माहेश्‍वरी द्वारा इस प्रकार कि हेराफेरी बाडमेर नगरपालिका के पद पर रहते हुए भी की गई थी| बाडमेर खसरा संख्‍या 1431 के सम्‍बन्‍ध में सरकारी दस्‍तावेजों में हेराफेरी व वित्‍तीय अनियमितताओं को लेकर श्रीमान् उपखण्‍ड अधिकारी बाडमेर ने अधिशाषी अधिकारी रामकिशोर माहेश्‍वरी के नाम एफआईआर दर्ज कराई है एवं श्रीमान् जिला कलेक्‍टर बाडमेर श्री सुधार कुमार की अध्‍यक्षता में गठित सतर्कता समिति में प्रकरण दर्ज कर श्रीमान् उपखण्‍ड अधिकारी बाडमेर से जांच कराई| श्रीमान् उपखण्‍ड अधिकारी बाडमेर ने दिनांक 5.7.2007 की जांच रिपोर्ट में तत्‍कालिन अधिशाषी अधिकारी रामकिशोर माहेश्‍वरी को दोषी माना गया है एवं जांच सम्‍बन्धित विभाग एवं राज्‍य सरकार को भी भिजवाई गई है| राजस्‍थान नगरपालिका अधिनियम 1959 की धारा 80 के तहत पालिका बाडमेर द्वारा खसरा नम्‍बर 1431 की भूमि पर जारी चोदह पट्टों को नियमानुसार निरस्‍त किया जा रहे है|

2) यह कि नगरपालिका में कार्यरत लिपिक श्रीमान् नैनाराम बंजारा भाट की गिनती आज शहर के करोड पति व्‍यक्तियों में होती है| शहर में पांच भव्‍य मकानों एवं कई प्‍लॉटों का मालिक है| यह सारी सम्‍पति लिपिक के पद पर रहते हुये कहां से अर्जीत की गई है? नगरपालिका भीनमाल के लिपिक नैनाराम बंजारा के सम्‍पति की भी जांच करावें|

3) यह कि उक्‍त जनप्रतिनिधि, अधिकारी व कर्मचारी द्वारा जिस प्‍लॉट का पट्टा श्रीमती सुबटी के नाम जारी किया है उसी प्‍लॉट से सम्‍बन्धित प्रार्थी द्वारा श्रीमान् को प्रार्थना-पत्र पेश कर जनसुनवाई प्रकरण संख्‍या 496 दिनांक 17.5.2007 में चाही गई वांछित नकलें नगरपालिका भीनमाल आज दिनांक तक प्रार्थी को उपलब्‍ध नहीं कराई गई| प्रकरण संख्‍या 496 के क्रम में श्रीमान् उपखण्‍ड अधिकारी महोदय भीनमाल ने पत्र क्रमांक/सम/07/5068 दिनांक 4/10/2007 को सूचना भेजी है|

अतः श्रीमान् से निवेदन है कि नियमन की पत्रावली संख्‍या 1/90, 2/90, 76/2001, 13/2006, 14/2006, 15/2006 एवं नियमन की पत्रावली संख्‍या 77/2001 श्रीमती सुबटी देवी के नाम जारी गये पट्टा व प्‍लॉट से सम्‍बन्धित सभी दस्‍तावेजों की जांच करावें के नियमानुसार उक्‍त पट्टे को निरस्‍त कराने की कार्यवाही करावें एवं उक्‍त पट्टे को जारी करने वाले जनप्रतिनिधि, अधिकारी व कर्मचारियों दोषी व्‍यक्तियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करावें| नगरपालिका भीनमाल के लिपिक नैराराम बंजारा के पास करोडों रूपयों की सम्‍‍पति कहां से आई जिसकी जांच करावें|

दिनांक 11.10.2007

प्रार्थी

रमेश कुमार सुथार

Saturday, December 11, 2010

केसे होते होंगे फैसले

आज कानून को जानने वाले हो या न जानने वाले दोनों करते है फैसला ......... उदहारण के तौर पर राजस्व विभाग के तहसील से लेकर जिला मुख्यालय तक के फैसले बिना विधि की उपाधि वाले अफसर करते है वे लोग विधि का अकादमिक अध्ययन नहीं रखते फिर भी वे उनके पास आये हुए केसों को अधूरे विधि के ज्ञान से निर्णित करते है और सरकार भी उनको यह अधिकार देती है एवं हमारा कानून न्याय का डंडा... वाह ...! ...... और भटकते है लोग ..... न्याय की तलाश में .............. क्या उन को मिला रहा है न्याय ?...... यक्ष प्रश्न कायम है ..........सोचना होगा की एक गरीब अपने झोपड़े की दो गज जमीन..... एक गरीब किसान मौसम की मार झेलता.... दो बीघा जमीन के टुकडे पर अपने हक की खातिर इन अधूरे विधि ज्ञान के जजों के पास न्याय मांगता है पर मिलाता है अधुरा न्याय ...कठोर मेहनत और पसीने की गाढ़ी कमाई की बर्बादी ... छिना जाता है बच्छो के हक़ का निवाला वाह रे !...अभागे कैसी तेरी किस्मत ....... क्या ये फैसले होते है रीडर के भरोसे ?...... प्रश्न कायम है ...... क्या इन फैसलों को विधि की उपाधियुक्त किसी जज द्वारा निर्णित नहीं किया जाना चाहिए ....? ...... प्रश्न अभी भी कायम है ........ और बड़ा बन कर ...... हम क्यों सोये हुए है कुम्भकर्ण की निंद्रा में ....... ? ....... पूछता है ..... न्याय ..... क्यों हो रहा है उसके साथ अन्याय ....?

आम जनता के हक़ सवाल

आज कानून को जानने वाले हो या न जानने वाले दोनों करते है फैसला ......... उदहारण के तौर पर राजस्व विभाग के तहसील से लेकर जिला मुख्यालय तक के फैसले बिना विधि की उपाधि वाले अफसर करते है ...... और भटकते है लोग ..... न्याय की तलाश में .............. क्या उन को मिला रहा है न्याय ?...... यक्ष प्रश्न कायम है ........... क्या ये फैसले होते है रीडर के भरोसे ?...... प्रश्न कायम है ...... क्या इन फैसलों को विधि की उपाधियुक्त किसी जज द्वारा निर्णित नहीं किया जाना चाहिए ....? ...... प्रश्न अभी भी कायम है ........ और बड़ा बन कर ...... हम क्यों सोये हुए है कुम्भकर्ण की निंद्रा में ....... ? ....... पूछता है ..... न्याय ..... क्यों हो रहा है उसके साथ अन्याय ....?

Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार अनमाप अनियंत्रित

सुप्रीम कोर्ट ने कल पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा आयकर निरीक्षक मोहनलाल शर्मा को बरी किए जाने को चुनौती देते हुए प्रस्तुत की गई सीबीआई की याचिका को स्वीकार करते हुए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की है। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। विशेष रूप से आयकर, बिक्रीकर और आबकारी विभाग में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है। पीठ ने व्यंग्य करते हए कहा कि सरकार भ्रष्टाचार को वैध क्यों नहीं कर देती ताकि हर मामले में एक राशि निश्चित कर दी जाए। ऐसा किया जाए कि यदि कोई व्यक्ति मामले को निपटाना चाहता है तो उससे ढाई हजार रुपये मांगे जा सकते हैं। इस तरह से हर आदमी को पता चल लाएगा कि उसे कितनी रिश्वत देनी है। अधिकारी को मोलभाव करने की जरूरत नहीं है और लोगों को भी पहले से ही पता होगा कि कि उन्हें बिना किसी फिक्र के क्या देना है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी देश में मौजूद वर्तमान तंत्र के चेहरे पर एक कालिख है जिसे चाहने पर भी साफ नहीं किया जा सकेगा। हो सकता है यह टिप्पणी न्यायालय के रिकॉर्ड का भाग न बने, लेकिन माध्यमों ने इसे स्थाई रूप से रिकॉर्ड का भाग बना दिया है। इस टिप्पणी ने स्पष्ट कर दिया है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जितने भी उपाय सरकार द्वारा आज तक किए गए हैं वे सिर्फ दिखावा मात्र हैं। उन से भ्रष्टाचार के दैत्य का बाल भी बांका नहीं हो सका है। हाँ दिखावे के नाम पर हर वर्ष कुछ व्यक्तियों को सजाएँ दी जाती हैं। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो-जो भी उपाय किए गये वे सभी स्वयं भ्रष्टाचार की गंगा में स्नान करते दिखाई दिए।

कोई तीस पैंतीस वर्ष पहले तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-अभियान भी चले लेकिन उन की परिणति ने यह सिद्ध कर दिया कि मौजूदा व्यवस्था के चलते भ्रष्टाचार का कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता है। अब तो यदि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई जन-अभियान की आरंभ करता दिखाई पड़े तो लोग उस की मजाक उड़ाते हैं। खुद न्यायपालिका भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है, अपितु वहाँ भी इस की मात्रा में वृद्धि ही हो रही है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल सरकार पर ही नहीं समूची राजनीति और व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है। यह संकेत दे रही है कि इस देश की मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट कर के एक नई व्यवस्था की स्थापना आवश्यकता है। देखना यही है कि उस के लिए देश कब खुद को तैयार कर पाता है।

अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत

विगत आलेख क्या हम न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से पलायन का मार्ग नहीं तलाश रहे हैं ? पर तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ आईँ।संगीता पुरी जी ने कहा कि 'सजा गल्‍ती की निरंतरता को रोकने के लिए दी जाती है .. न्‍याय के क्षेत्र में होनेवाली देरी और खर्च के कारण तो उतने दिनों तनाव में रहने से तो अच्‍छा है .. एक दो बार हुए किसी की गल्‍ती को कुछ लोगों के हस्‍तक्षेप से सुलह करवाकर माफी वगैरह मांग मंगवाकर समस्‍या को हल कर लिया जाए !!' काजल कुमार ने कहा 'जब न्यायव्यवस्था बढ़ते मुक़दमों को नहीं निपटा पा रही है तो हमें वैकल्पिक उपायों के बारे में सोचना होगा. मसलन ओम्बडसमैन व राजीनामा जैसी संस्थाओं को मज़बूत करना होगा ताकि ये न्यायालयों के स्थानापन्न का रूप ले सकें.' उन्हों ने यह भी कहा कि 'आज हालत ये है कि निचले न्यायालयों को एक मिनट के लिए छोड़ भी दिया जाए तो उच्च-न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के सम्मुख अधिकांश मामले ऐसे आते हैं जिनमें कानून की व्याख्या को कोई सवाल नहीं होता किन्तु उन्हें यही जामा पहना कर पेश किया जाता है. जबकि, इन न्यायालयों को इस तरह के मुक़दमों को सरसरी नज़र में खारिज कर देना चाहिये.' इस के अलावा ताऊ रामपुरिया जी की राय थी कि 'असल में कानून में जो झौल है उसे खत्म करने की जरुरत है, ये मेरा अपना निजी सोच है जिससे न्यायिक प्रक्रिया उलझे नही और त्वरित न्याय मिल सके.'
संगीता जी ने जो राय रखी वह एक आम व्यक्ति की सोच है जो अपर्याप्त और न्याय प्राप्त करने के कष्टप्रद न्यायप्रणाली के प्रभाव से उत्पन्न हुई है। न्याय के क्षेत्र में केवल अपराध ही नहीं आते हैं। आज जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस में न्याय प्राप्ति की आवश्यकता नहीं हो। वस्तुत स्थिति यह है कि देश के तमाम सक्षम लोग कानून का उल्लंघन करते हैं और सोचते हैं जो वे करेंगे वही न्यायपूर्ण है। लेकिन साधारण लोगों के पास इस अन्याय से उबरने का एक मात्र उपाय न्यायिक संस्थाओँ के पास जाना है। यदि वहाँ भी न्याय न मिले और समझौते की राह दिखाई जाए जहाँ फिर उसी अन्याय का सामना करना पड़े तो इस वैकल्पिक न्याय व्यवस्था से क्या लाभ है। सही और उचित न्याय तो वही है जो न्यायालय में सबूतों, सचाई और कानून के आधार पर प्राप्त हो। इस तरह वैकल्पिक व्यवस्थाएँ वास्तविक न्याय से पलायन करने की एक तदर्थ व्यवस्था है। अमरीका में दस लाख की आबादी के लिए 110 जज नियुक्त हैं जब कि हम भारत में केवल 11 से काम चला रहे हैं। इस तरह अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत है। क्या भारत जैसा देश दस प्रतिशत न्याय से काम चला सकता है? और यह कहा जा सकता है कि हम न्याय कर रहे हैं। वैकल्पिक प्रणालियों का लाभ भी तभी मिल सकता है जब मूल न्यायिक व्यवस्था पर्याप्त हो। तब समझौते से निकाले गए हल अधिक न्यायपूर्ण हो सकेंगे। क्यों कि तब उन के पीछे सोच यह नहीं होगी कि वह न्याय की लंबी, उबाऊ, थकेलू और मारक व्यवस्था से पिंड छुड़ाने के लिए समझौता कर लेना बेहतर है।
ताऊ जी की सोच हमेशा यथार्थ होती है। उन्हों ने कानून के झोल की बात कही है। जब रस्सी पूरी तनी हुई नहीं बंधी होती है तो उस में झोल आ जाना स्वाभाविक है। आज भारतीय अदालतों के पास अमरीका की अदालतों से दस गुना भार है। ऐसी अवस्था में कानून में झोल दिखाई देना स्वाभाविक है। अदालतें जितना काम कर सकती हैं करती हैं। बाकी को आगे टालने के लिए कानून के झोल का सहारा लेती हैं। यह झोल भी पर्याप्त अदालतों के बिना दूर किया जाना संभव नहीं है।

''अंधेर नगरी-चौपट राजा'' और सर्वत्र फैली हुई अराजकता।

संसद और विधानसभाएं कानून बनाती हैं। ये कानून किताबों में दर्ज हो जाते हैं। बहुत सारे पुराने कानून हैं और हर साल बहुत से कानून बनते हैं। नयी परिस्थितियों के लिये नये कानून। पुराने कानूनों में संशोधन भी किये जाते हैं। इसलिए कि समाज और देश को सही तरीके से चलाया जा सके, कोई अपनी मनमानी नहीं कर सके।
पर इन कानूनों को कोई न माने तो?
न माने तो, अगर कोई अपराधिक है तो पुलिस चालान करेगी। मुकदमा चलेगा। सजा होगी। सजा के डर से कानून को मानना ही होगा। अगर कानून सिविल है, तो आप या जिस को भी किसी के काम से परेशानी हो वह अदालत के पास सीधे जा कर दावा कर सकता है और कानून की बात को मनवा सकता है।
पर सजा या फिर कानून की बात मनवाने का काम तो तभी होगा न? जब अदालत फैसला देगी?
फिर एक अदालत के फैसले के बाद भी तो अपील है, दूसरी अपील है?
तब वह दिन कब आएगा? जब कानून की पालना हो पाएगी?
जब आखरी अदालत का फैसला हो कर लागू होगा
और आखिरी अदालत का फैसला होने में ही कम से कम बीस पच्चीस बरस तो लग ही जाएंगे।
फिर कौन संसद और विधानसभाओं के बनाए कानूनों की परवाह करता है।
क्या इन विधानसभाओं और संसद को नहीं सोचना चाहिए कि उन के बनाए कानूनों को लागू कैसे कराया जा सकेगा?
शायद ऐसा सोचने की वहां कोई जरूरत महसूस ही नहीं करता है? वहाँ केवल यह सोचा जाता है कि संसद में या विधानसभाओं में वे ऐसे दिखें कि अगले चुनाव में वोट लिए जा सकें।
यह तो अब सब के सामने है कि देश में अदालतें कम हैं। जरूरत की 16 परसेंट भी नहीं। तो क्या इन्हें बढ़ाया नहीं जाना चाहिए?
यह समय की आवश्यकता है कि देश में अदालतों की संख्या तुरंत बढ़ाई जाए। एक लक्ष्य निर्धारित किया जाए कि आज से पाँच, दस, पन्द्रह बरस बाद देश में इतनी संख्या में अदालतें होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य तीव्रतम गति से न्याय प्रदान करना होना चाहिए। किसी भी अदालत में कोई भी मुकदमा दो साल से अधिक लम्बित नहीं रहना चाहिए। तभी हम विकसित देशों के समान सुचारु रूप से राज्य व्यवस्था को चला पाऐंगे। कानून और व्यवस्था को बनाए रख पाऐंगे। और यह नहीं कर पाए तो, निश्चित ही हम अपने देश में कानून को न मानने वालों की बहुसंख्या और ''अंधेर नगरी-चौपट राजा'' पाऐंगे, और पाऐंगे सर्वत्र फैली हुई अराजकता।

देश को जरूरत है 77,664 जजों की

भारतीय न्याय प्रणाली की विश्व में अच्छी साख है, लेकिन यह अपने ही देश में अपनी ही जनता का विश्वास खोती जा रही है। देश में शिक्षा व जागरूकता में वृद्धि होने से समस्याओं के हल के लिए अधिक नागरिक अदालतों की शरण में आने लगे हैं और मुकदमों की संख्या बढ़ी है। मुकदमों की संख्या वृद्धि से निपटने में हमारी न्याय प्रणाली अक्षम सिद्ध ह रही है। इस का सीधा नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश अदालतें मुकदमों से अटी पड़ी हैं। मुवक्किल अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं, मुकदमों में तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं, पर उन के फैसले नहीं हो पाते।

20 दिसम्बर को भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन् ने मुम्बई में एक समारोह में बताया कि तीन करोड़ अस्सी हजार से अधिक मुकदमें देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित हैं, जिन में 46 हजार से अधिक सुप्रीम कोर्ट में, 37 लाख से अधिक हाई कोर्टों में तथा ढ़ाई करोड़ से अधिक निचली अदालतों में फैसलों के इन्तजार में हैं। मुकदमों का निपटारा करने का कर्तव्य हमारा (न्यायपालिका का) है, हमने पिछले दो सालों में निपटारे की गति को 30 प्रतिशत बढ़ाया है। लेकिन दायर होने वाले मुकदमों की संख्या भी बढ़ी है जिस से लम्बित मुकदमों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में केवल 14000 जजों के पद स्वीकृत हैं जिन में से केवल 12000 जज कार्यरत हैं 2000 जजों के पद जजों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में खाली पड़े हैं। 500 मुकदमों के निपटारे के लिए हमें एक जज की जरूरत है। इस तरह लम्बित मुकदमों के निपटारे के लिए हमें 77,664 जजों की आवश्यकता है। हमें ज्यादा अदालतें और ज्यादा बजट चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश के ताजा कथन से हमारी न्याय प्रणाली की बेचारगी प्रकट होती है, और एक नंगी हकीकत सामने आती है। हमारे देश में मुकदमें निपटाने के लिए जितनी अदालतों की आज जरुरत है, उस की केवल 16 प्रतिशत अदालतें हमारे पास हैं। हम उन से ही काम चला रहे हैं। ऐसी हालत में शीघ्र न्याय की आशा किया जाना व्यर्थ है ही न्याय की गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है।

हमारी न्यायप्रणाली की सारी समस्याओं और फैसलों में देरी, वकीलों की हड़तालें, भ्रष्टाचार आदि बीमारियों की जड़ यहीं है। न्याय प्रणाली को साधन मुहय्या कराने की जिम्मेदारी केन्द्न और प्रान्तीय सरकारों की है जिसे पूरा करने में वे बुरी तरह असफल रही हैं।

सरकारों की जनता के प्रति जिम्मदारियों का राजनीति में बहुत उल्लेख होता है। जनता को आकर्षित करने वाले मुद्दों को राजनैतिक व चुनाव घोषणा पत्रों में स्थान भी मिलता है लेकिन जनता को सीधे प्रभावित करने वाले न्याय के मुद्दे पर न तो कोई राजनैतिक दल बात करता है और न ही करना चाहता है, चुनाव घोषणा पत्र में स्थान पाना तो बहुत दूर की बात है। अनजान कारणों से हर कोई इस मुद्दे से बचना और इसे जनता से छुपाना चाहता है। हमारे मुख्य न्यायाधीश इस ओर संकेत तो करते रहे मगर उसे खुल कर कभी भी सामने नहीं लाए।

यह पहला मौका है जब मुख्य न्यायाधीश ने खुल कर इस हकीकत को बयान किया है, या उन्हें करना पड़ा है। क्योंकि अब हालात ऐसे हैं कि स्थिति को नहीं सम्भाला गया तो न्याय प्रंणाली पूरी तरह चरमरा जाएगी और घोर अराजकता हमारे सामने होगी।

न्याय की दुर्दशा देखें

न्याय की दुर्दशा देखें नवभारत टाइम्स के इस संपादकीय में .......

29 Nov 2007, 1914 hrs IST
कागजी घोड़े देश में अदालती कार्यवाहियों पर कागजी घोड़े हावी हैं, जिनकी सुस्ती ने इंसाफ की रफ्तार भी धीमी कर दी है। इन घोड़ों ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त के साथ खूब खेल किया। इन्हीं की मेहरबानी से कभी उनके जेल से बाहर आने में विलंब हुआ तो कभी इन्हीं के कारण वे दो महीने तक जेल जाने से बचे भी रहे। टाडा कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद जब वह जेल गए तो सुप्रीम कोर्ट ने 24 अगस्त को उन्हें अंतरिम जमानत दी और कहा कि फैसले की कॉपी मिलते ही उन्हें अदालत में समर्पण करना होगा। लेकिन जेल से छूटने में उन्हें तीन दिन लग गए, क्योंकि टाडा कोर्ट ने जेल अधिकारियों तक दस्तावेज नहीं पहुंचाए थे।

खैर, उसके बाद फैसले की कॉपी मिलने में दो महीने लग गए। यानी संजय दत्त इतने दिनों तक बाहर रहे। 22 अक्टूबर को कॉपी हासिल होने के बाद उन्होंने आत्मसमर्पण किया और जेल चले गए। अब जब उन्हें जमानत मिल गई तो जेल से निकलने में दो दिनों की देर हो गई। वजह थी- कागजी कार्यवाही में विलंब। ऐसा तब हुआ जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ईमेल और फैक्स के जरिए अपने निर्णय की सूचना संबद्ध अधिकारियों तक पहुंचाई थी। लेकिन इस देश के सारे कैदी संजय दत्त की तरह भाग्यशाली नहीं हैं।

पिछले दिनों सूचना के अधिकार कानून के तहत जो जानकारी मिली है वह हैरत में डालती है। एक अदालत के आंकड़े बताते हैं कि एक जेल में सैकड़ों ऐसे कैदी हैं जो अपनी सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में सिर्फ इसलिए अपील नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास जजमेंट की कॉपी नहीं है। मुंबई के फोर्ट स्थित सेशन कोर्ट द्वारा पिछले पांच सालों में 2247 लोगों को सजा सुनाई गई, लेकिन इनमें से संभवत: 44 फीसदी लोगों को फैसले की कॉपी नहीं मिली। इसके बगैर वे अपील नहीं कर सकते। वे आज भी जेल में जजमेंट की कॉपी का इंतजार कर रहे हैं, जबकि सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद फैसले की कॉपी नि:शुल्क प्राप्त करने का उन्हें कानूनी हक है। जब एक कोर्ट का यह हाल है, तो देश के हजारों न्यायालयों में क्या स्थिति होगी। अदालती अमले के ढीले-ढाले रवैये और कामकाज के पुराने तौर-तरीके के कारण असंख्य लोगों के लिए न्याय ठिठका पड़ा है। न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन इस तरह के छोटे पहलुओं की प्राय: अनदेखी की जाती है। अगर थोड़ी तत्परता दिखाई जाए तो बहुतों को राहत मिल सकती है।

Wednesday, October 27, 2010

जिला कलेक्‍टर स्‍तरीय जन सुनवाई


प्रार्थी रमेश कुमार सुथार द्वारा दिनांक 17-5-2007 को जिला कलेक्‍टर स्‍तर पर हो रही जन सुनवाई में एक आवेदन पत्र पेश अपनी जमीन से सम्‍बन्धित सभी दस्‍तावेजों की नकलें चाही गई|
नगर पालिका भीनमाल ने येनकेन प्रकारण प्रार्थी को नकलें देना नहीं चाहता था| आखिर में दिनांक 15-10-2007 (पत्र क्रमांक-नपाभी/5221/07) को नगर पालिका भीनमाल ने नकलें उपलब्‍ध नहीं कराने का कारण यह बताया कि ‘उपलब्‍ध होने पर दी जायेगी’ एवं दिनांक 18-6-2008 (पत्र क्रमांक-नपाभी/1708/08) को नगर पालिका ने लिखा की – ‘परन्‍तु रेकर्ड 38-40 वर्ष पुराना होने से उपलब्‍ध नहीं हो पा रहा है’
नगर पालिका के इस तरह के जवाब मिलने पर श्रीमान् उपखण्‍ड अधिकारी भीनमाल ने दिनांक 23-8-2008 (पत्र क्रमांक-जनसुनवाई/08/6316) ने नगरपालिका को लिखा कि- आप द्वारा प्रासंगिक पत्र के द्वारा इस कार्यालय को अवगत कराया है कि वांछित प्रकरण में चाही गई नकलों का रेकार्ड 38-40 वर्ष पुराना होने से उपलब्‍ध नहीं हो पा रहा है| इस क्रम में लेख है कि अभी हाल ही में आपके नगर पालिका कार्यालय से सेवानिवृत वरिष्‍ठ कर्मचारी श्री नैनाराम बंजारा सेवानिवर्त हुये है उक्‍त सेवानिवृत कर्मचारी भूमि सम्‍बन्‍धी एवं अन्‍य पालिका का महत्‍वपूर्ण कार्य भार देखता आ रहा है| अतः उक्‍त सेवानिवृत कर्मचारी द्वारा अपने जिम्‍मे का चार्ज सेवानिवृत होने से पूर्व पालिका कर्मचारी को उक्‍त प्रकरण से सम्‍ब‍न्धित पत्रावली दर्ज है तो परिवादी श्री रमेश कुमार सुथार को उक्‍त पत्रावली की नकलें उपलब्‍ध करावाई जाना सुनिश्चित करे| यदि उक्‍त प्रकरण से सम्‍बन्धित पत्रावली चार्ज रिपोर्ट में अंकित नहीं है तो यह सुनिश्चित करे| यदि उक्‍त प्रकरण से सम्‍बन्धित पत्रावली चार्ज रिपोर्ट में अंकित नहीं है तो यह सुनिश्चित करे कि उक्‍त पत्रावली तत्समय किसके चार्ज में रही तथा किस कर्मचारी द्वारा चार्ज आदान-प्रदान की सूची से भलीभाति स्‍पष्‍ट हो जायेगा| फिर भी यदि उक्‍त पत्रावली उपलब्‍ध होना सम्‍भव नहीं हो पाने की स्थिति में तत्समय उक्‍त पत्रावली जिस कर्मचारी के चार्ज में रही है| उक्‍त कर्मचारी के विरूद्व पुलिस थाना में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई जाकर स्थिति स्‍पष्‍ट की जावे ताकि लम्‍बे समय से चल रहे जिला स्‍तरीय जन सुनवाई प्रकरण संख्‍या 496/07 दिनांक 17-05-2007 का निस्‍तारण किया जा सके|
कृपया उक्‍त पत्र को सर्वोच्‍च प्राथमिकता देवें|

Sunday, October 10, 2010

सच के लिए जेल भी मंजूर

सलीम को परेशां करने की वजह से एसपी की तनख्वाह से छः हजार रुपए काटे गए।
सच
जानना चाहा तो हाल यह हो गया की घर छुटा, बच्चों की बधाई छूटी, झूठे मुकदमों मैं जेल कटी और जब इससे भी पुलिस का मन नहीं भरा तो इंतनी धारों में मुकदमे लादे की परिवार समेत आरटीआई के एक सिपाह को खुद को तड़ीपार करना पड़ा गया यानी पुरे एक साल से ज्यादा वक़्त तक घरबार छोड़कर फरार रहना पड़ामुरादाबाद के भोजपुर इलाके के रहने वाले सलीम बेग ने सूचना के अधिकार कानून का सहारा लेकर हारी जंग जीतीमनारेगा योजनाओं में भष्टाचार का मामला हो या फिर स्थानीय गैस एजेंसी में फर्जी कनेक्शनों की बात होसलीम ने सच को उजागर करने की अपनी जंग तमाम मुश्किलों के बाद भी जारी राखीपुलिस में जारी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का खामियाजा यह हुआ की सलीम को १८ दिन जेल की सीखचों के पीछे गुजारने पड़ेसलीम ने पुलिस भर्ती में आय आवेदनों और भर्ती के मापदंडों पर सवाल पूछने की हिमाकत की तो पुलिस ने पहले तो उनसे सूचनाओं के लिए लाखों रुपे की मांग कर डाली। सूचना देने में टालमटोल हुई तो सलीम राज्य सूचना आयोग चले गए और नतीजा यह हुआ की तत्कालीन एसपि देहात पर जुलाई २००७ में २५ हजार रुपए का जुरमाना लग गया। तिलामिल्लाई पुलिस ने सलीम पर मुकदमों की बोछार कर दी। मामला एक बार फिर अदालत पहुंचा और सलीम को परेशान करने की वजह से एसपी की तनख्वाह से छः हजार रुपए काटे गए। इसके बाद तो पुलिस ने सलीम को परेशान करने के लिए हर हथकंडा आजमाया। नतीजा यह हुआ कि पुलिसिया कहर से बचने के लिए सलीम को डेढ़ साल भोजपुर से बाहर रहना पड़ा। गैगस्टर एक्ट में दर्ज गैंग और उनके सदस्यों कि जानकारी के साथ ही पुलिस हिरासत में मरने वाले लोगों कि भी तादाद सलीम ने पुलिस विभाग से पूछी। इतना ही नहीं यूपी सरकार की ओर से मायावती के जन्मदिन पर छोड़े गे कड़ीयों के बारे में भी जानकारी मांगी। पुलिस और प्रशासन की लाख ज्यादतियों को झेलने के बाद भी सलीम सच्चाई के रस्ते पर निडर होकर चाले जा रहे है।

Saturday, October 9, 2010

Nearly 30 million cases pending in courts

Over three million cases are pending in India's 21 high courts, and an astounding 26.3 million cases are pending in subordinate courts across the country.

At the same time, there are almost a quarter million under-trials languishing in jails across the country. Of these, some 2,069 have been in jail for more than five years, even as their guilt or innocence is yet to be ascertained.

This has been revealed by official figures emerging from the home ministry's department of justice, under a Right to Information Act application placed by a citizen.

It has also been found that over a quarter of all pending high court cases are at Allahabad.

The Allahabad High Court had some 1.09 million pending cases, with over eight out of every 10 cases being civil cases at the end of 2006. Meanwhile, the Supreme Court of India had a total of 39,780 civil and criminal pending cases at the end of last year.

Madras High Court (406,958 pending cases) and Bombay High Court (362,949) were the others with a large number of pending cases. Sikkim is the lowest with just 51 pending cases.

Of the pending cases in high courts, 704,214 were criminal and 3.2 million were civil cases.

In subordinate courts, Uttar Pradesh again topped the number of pending cases (4.6 million), followed by Maharashtra (4.1 million), Gujarat (3.9 million), West Bengal (1.9 million), Bihar (1.2 million), Karnataka (1.06 million), Rajasthan (1.05 million), Orissa (1 million), Andhra Pradesh (900,000).

In another query, the National Crime Records Bureau that functions under the home ministry told Hari Kumar P. of Kasargod in a Right to Information Act reply that the number of under-trials in India was highest in Maharashtra (15,784) and Madhya Pradesh (15,777).

Bihar (with 628 prisoners) topped the number of states with the maximum number of under-trials kept for over five years. Punjab also had 334 under-trials for over five years and Uttar Pradesh had 212. Delhi itself had 344 under-trials languishing in jails for over five years.

On the positive side, some states had no under-trials in jail for this long a period without their trials being completed. These states included Andhra Pradesh, Goa, Himachal Pradesh, Kerala, Manipur, Mizoram, Sikkim, Tamil Nadu, and Tripura, apart from some smaller states and union territories.

Nearly 30 million cases pending in courts- Hindustan Times

तलाक के 55000 मामले लंबित हैं।

नई दिल्ली. देश की अदालतों में तलाक के 55000 मामले लंबित हैं। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने बताया कि इन सभी मामलों का निपटारा संसद में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विशेष विवाह अधिनियम 1954 के संशोधन पर मुहर लगने के बाद तेजी से होगा।

मोइली ने बताया कि यह संशोधन विधेयक संसद से पास होते ही एक पखवाड़े में सभी मामले निपट जाने की उम्मीद है। इसके लिए परिवार न्यायालयों की संख्या बढ़ाई जा रही है। पहली प्राथमिकता उन मामलों की होगी जो तीन साल से ज्यादा समय से लंबित हैं। यह पहली बार है जब केंद्र सरकार ने तलाक चाहने वाले दंपतियों के आंकड़े बताए हैं।

खाली कुर्सियां फ़ैसले नहीं किया करतीं .....



पिछली पोस्ट में बताया ही था कि कैसे और क्यों एक आम भारतीय को न्याय पाने के लिए सिर्फ़ 320 साल ही प्रतीक्षा करनी है । आज इन आंकडों पर नज़र डालिए , ये आंकडे फ़िर साबित कर रहे हैं कि हमारी सरकार न्याय व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त करने के लिए सचमुच ही कितनी गंभीर है ।उससे पहले ये बताता चलूं कि सभी इस बात को लगभग मान चुके हैं कि न्याय में विलंब का सबसे बडा कारण है देश में अदालतों की कमी और रिक्त पडे पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति न होना ।


राजधानी दिल्ली से शुरू करें तो यहां पर सिविल जजों के 125 पद तथा जिला जजों के 21 पद खाली हैं । बिहार में ये तो मात्र 289 पद ही खाली पडे हुए हैं ,पंजाब की निचली अदालतों में 206 पद , हरियाणा की अदालतों में भी 206 पद , छत्तीसगढ की निचली अदालतों में 170 पद, राजस्तान में 172, मध्यप्रदेश में 108, जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 256 . पद ही खाली पडे हैं । बस बाकी पूरे बचे भारत के अन्य राज्यों का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं । रुकिए जरा ..चलते चलते जरा एक और तथ्य तथा आंकडे पर नज़र डालते जाईये . । अभी हाल ही में एक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने कहा कि " किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए हर छोटे बडे फ़ैसले के खिलाफ़ अगर इसी तरह यहां पर विशेष अनुमति याचिका स्वीकार की जाती रही तो एक दिन इनके बोझ से ढह कर खुद सर्वोच्च न्यायालय ही ढह जाएगी । "

आंकडों के अनुसार पिछले वर्ष ही सर्वोच्च न्यायालय में कुल 70,000 विशेष अनुमति याचिकाएं दाखिल की गईं । जबकि अमेरिका की सर्वोच्च न्यायालय एक साल में सिर्फ़ 100 से 120 मुकदमों और कनाडा की अदालत तो सिर्फ़ 60 मुकदमों की सुनवाई करती है ।



तो देश की आम जनता को अब ये खुल कर पता होना चाहिए कि यदि वो अदालत पहुंच कर फ़टाफ़ट किसी न्याय की उम्मीद कर रहे हैं तो कतई ये उम्मीद न पालें क्योंकि खाली कुर्सियां फ़ैसले नहीं किया करतीं ।


नोट :- सभी आंकडे आज दैनिक जागरण के दिल्ली संस्करण में छपी खबर से साभार लिए गए हैं ॥

बिकाऊ है भारत सरकार, बोलो खरीदोगे ?



- अरविन्द केजरीवाल (प्रमुख आरटीआई एक्टिविस्ट एवं सामाजिक कार्यकर्ता)

पहले आयकर विभाग में काम किया करता था। 90 के दशक के अंत में आयकर विभाग ने कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सर्वे किया। सर्वे में ये कंपनियां रंगे हाथों टैक्स की चोरी करते पायी गयीं, उन्होंने सीधे अपना जुर्म कबूल किया और बिना कोई अपील किये सारा टैक्स जमा कर दिया। अगर ये लोग किसी और देश में होते तो अभी तक उनके वरिष्ठ अधिकारियों को जेल भेज दिया गया होता। ऐसी ही एक कम्पनी पर सर्वे के दौरान उस कम्पनी के विदेशी मुखिया ने आयकर टीम को धमकी दी - ‘‘भारत एक बहुत गरीब देश है। हम आपके देश में आपकी मदद करने आये हैं। आपको पता नहीं हम कितने ताकतवर हैं। हम चाहें तो आपकी संसद से कोई भी कानून पारित करा सकते हैं। हम आप लोगों का तबादला भी करा सकते हैं।’’ इसके कुछ दिन बाद ही इस आयकर टीम के एक हेड का तबादला कर दिया गया।

उस वक्त मैंने उस विदेशी की बातों पर ज्यादा गौर नहीं किया। मैंने सोचा कि शायद वो आयकर सर्वे से परेशान होकर बोल रहा था, लेकिन पिछले कुछ सालों से मुझे धीरे-धीरे उसकी बातों में सच्चाई नजर आने लगी है।

जुलाई 2008 में यू.पी.ए. सरकार को संसद में अपना बहुमत साबित करना था। खुलेआम सांसदों की खरीद-फरोख्त चल रही थी। कुछ टी.वी. चैनलों ने सांसदों को पैसे लेकर खुलेआम बिकते दिखाया। उन तस्वीरों ने इस देश की आत्मा को हिला दिया। अगर सांसद इस तरह से बिक सकते हैं तो हमारे वोट की क्या कीमत रह जाती है। मैं जिस किसी सांसद को वोट करूँ, जीतने के बाद वह पैसे के लिए किसी भी पार्टी में जा सकता है। दूसरे, आज अपनी सरकार बचाने के लिए इस देश की एक पार्टी उन्हें खरीद रही है। कल को उन्हें कोई और देश भी खरीद सकता है। जैसे अमरीका, पाकिस्तान इत्यादि। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो, किसे पता? यह सोच कर पूरे शरीर में सिहरन दौड़ पड़ी- क्या हम एक आजाद देश के नागरिक हैं? क्या हमारे देश की संसद सभी कानून इस देश के लोगों के हित के लिए ही बनाती है?

अभी कुछ दिन पहले जब अखबारों में संसद में हाल ही में प्रस्तुत न्यूक्लीयर सिविल लायबिलिटी बिल के बारे में पढ़ा तो सभी डर सच साबित होते नजर आने लगे। यह बिल कहता है कि कोई विदेशी कम्पनी भारत में अगर कोई परमाणु संयंत्र लगाती है और यदि उस संयंत्र में कोई दुर्घटना हो जाती है तो उस कम्पनी की जिम्मेदारी केवल 1500 करोड़ रुपये तक की होगी। दुनियाभर में जब भी कभी परमाणु हादसा हुआ तो हजारों लोगों की जान गयी और हजारों करोड़ का नुकसान हुआ।

भोपाल गैस त्रासदी में ही पीड़ित लोगों को अभी तक 2200 करोड़ रुपया मिला है जो कि काफी कम माना जा रहा है। ऐसे में 1500 करोड़ रुपये तो कुछ भी नहीं होते। एक परमाणु हादसा न जाने कितने भोपाल के बराबर होगा? इसी बिल में आगे लिखा है कि उस कम्पनी के खिलाफ कोई आपराधिक मामला भी दर्ज नहीं किया जायेगा और कोई मुकदमा नहीं चलाया जायेगा। कोई पुलिस केस भी नहीं होगा। बस 1500 करोड़ रुपये लेकर उस कम्पनी को छोड़ दिया जायेगा।

यह कानून पढ़कर ऐसा लगता है कि इस देश के लोगों की जिन्दगियों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है। साफ-साफ जाहिर है कि यह कानून इस देश के लोगों की जिन्दगियों को दांव पर लगाकर विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमारी संसद ऐसा क्यों कर रही है? यकीनन या तो हमारे सांसदों पर किसी तरह का दबाव है या कुछ सांसद या पार्टियां विदेशी कम्पनियों के हाथों बिक गयी हैं।

भोपाल गैस त्रासदी के हाल ही के निर्णय के बाद अखबारों में ढेरों खबरें छप रही हैं कि किस तरह भोपाल के लोगों के हत्यारे को हमारे देश के उच्च नेताओं ने भोपाल त्रासदी के कुछ दिनों के बाद ही राज्य अतिथि सा सम्मान दिया था और उसे भारत से भागने में पूरी मदद की थी।

इस सब बातों को देखकर मन में प्रश्न खड़े होते हैं---क्या भारत सुरक्षित हाथों में है? क्या हम अपनी जिन्दगी और अपना भविष्य इन कुछ नेताओं और अधिकारियों के हाथों में सुरक्षित देखते हैं?

ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारों पर केवल विदेशी कम्पनियों या विदेशी सरकारों का ही दबाव है। पैसे के लिए हमारी सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। कितने ही मंत्री और अफसर औद्योगिक घरानों के हाथ की कठपुतली बन गये हैं। कुछ औद्योगिक घरानों का वर्चस्व बहुत ज्यादा बढ़ गया है। अभी हाल ही में एक फोन टैपिंग मामले में खुलासा हुआ था कि मौजूदा सरकार के कुछ मंत्रियों के बनने का निर्णय हमारे प्रधानमंत्री ने नहीं बल्कि कुछ औद्योगिक घरानों ने लिया था। अब तो ये खुली बात हो गयी है कि कौन सा नेता या अफसर किस घराने के साथ है। खुलकर ये लोग साथ घूमते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कुछ राज्यों की सरकारें और केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रालय ये औद्योगिक घराने ही चला रहे हैं।

यही कारण है कि हमारे देश की खदानों को इतने सस्ते में इन औद्योगिक घरानों को बेचा जा रहा है। जैसे आयरन ओर की खदानें लेने वाली कम्पनियां सरकार को महज 27 रुपये प्रति टन रॉयल्टी देती हैं। उसी आयरन ओर को ये कम्पनियां बाजार में 6000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचती हैं। क्या यह सीधे-सीधे देश की सम्पत्ति की लूट नहीं है?

इसी तरह से औने-पौने दामों में वनों को बेचा जा रहा है, नदियों को बेचा जा रहा है, लोगों की जमीनों को छीन-छीन कर कम्पनियों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है।

इन सब उदाहरणों से एक बात तो साफ है कि इन पार्टियों, नेताओं और अफसरों के हाथ में हमारे देश के प्राकृतिक संसाधन और हमारे देश की सम्पदा खतरे में है। जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो ये लोग मिलकर सब कुछ बेच डालेंगे।

इन सब को देखकर भारतीय राजनीति और जनतंत्र पर एक बहुत बड़ा सवालिया निशान लगता है। सभी पार्टियों का चरित्र एक ही है। हम किसी भी नेता या किसी भी पार्टी को वोट दें, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता।

पिछले 60 सालों में हम हर पार्टी, हर नेता को आजमा कर देख चुके हैं। लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। इससे एक चीज तो साफ है कि केवल पार्टियाँ और नेता बदल देने से बात नहीं बनने वाली। हमें कुछ और करना पड़ेगा।

हम अपने संगठन परिवर्तन के जरिये पिछले दस सालों में विभिन्न मुद्दों पर काम करते रहे हैं। कभी राशन व्यवस्था पर, कभी पानी के निजीकरण पर, कभी विकास कार्यों में भ्रष्टाचार को लेकर इत्यादि। आंशिक सफलता भी मिली। लेकिन जल्द ही यह आभास होने लगा कि यह सफलता क्षणिक और भ्रामक है। किसी मुद्दे पर सफलता मिलती जब तक हम उस क्षेत्र में उस मुद्दे पर काम कर रहे होते, ऐसा लगता कि कुछ सुधार हुआ है। जैसे ही हम किसी दूसरे मुद्दे को पकड़ते, पिछला मुद्दा पहले से भी बुरे हाल में हो जाता। धीरे-धीरे लगने लगा कि देश भर में कितने मुद्दों पर काम करेंगे, कहां-कहां काम करेंगे। धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि इस सभी समस्याओं की जड़ में ठोस राजनीति है। क्योंकि इन सब मुद्दों पर पार्टियां और नेता भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों के साथ हैं और जनता का किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है। मसलन राशन की व्यवस्था को ही लीजिए। राशन चोरी करने वालों को पूरा-पूरा पार्टियों और नेताओं का संरक्षण है। यदि कोई राशन वाला चोरी करता है तो हम खाद्य कर्मचारी या खाद्य आयुक्त या खाद्य मंत्री से शिकायत करते हैं। पर ये सब तो उस चोरी में सीधे रूप से मिले हुए हैं। उस चोरी का एक बड़ा हिस्सा इन सब तक पहुंचता है। तो उन्हीं को शिकायत करके क्या हम न्याय की उम्मीद कर सकते हैं। यदि किसी जगह मीडिया का या जनता का बहुत दबाव बनता है तो दिखावे मात्र के लिए कुछ राशन वालों की दुकानें निरस्त कर दी जाती हैं। जब जनता का दबाव कम हो जाता है तो रिश्वत खाकर फिर से वो दुकानें बहाल कर दी जाती हैं।

इस पूरे तमाशे में जनता के पास कोई ताकत नहीं है। जनता केवल चोरों की शिकायत कर सकती है कि कृपया अपने खिलाफ कार्रवाई कीजिए। जो होने वाली बात नहीं है।

सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा जिसमें जनता निर्णय ले और नेता व अफसर उन निर्णयों का पालन करें।

क्या ऐसा हो सकता है? क्या 120 करोड़ लोगों को कानूनन निर्णय लेने का अधिकार दिया जा सकता है?

वेसे तो जनतंत्र में जनता ही मालिक होती है। जनता ने ही संसद और सरकारों को जनहित के लिए निर्णय लेने का अधिकार दिया है। संसद, विधानसभाओं और सरकारों ने इस अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। उन्होंने पैसे खाकर खुलेआम और बेशर्मी से जनता को और जनहित को बेच डाला है और इस लूट में लगभग सभी पार्टियाँ हिस्सेदार हैं। क्या समय आ गया है कि जनता नेताओं, अफसरों और पार्टियों से अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार वापस ले ले?

समय बहुत कम है। देश की सत्ता और देश के साधन बहुत तेजी से देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों में जा रहे हैं। जल्द कुछ नहीं किया गया तो बहुत देर हो चुकी होगी। (पीएनएन)

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वर्तमान चुनौतियाँ और हमारी भूमिका


आज पूरा देश 1970 के दशकवाली गंभीर परिस्थितियों से गुजर रहा है। पूरे देश के जन आन्दोलन और संगठन इन परिस्थितियों पर समग्र रूप से विचार करने और मूलभूत परिवर्तन के लिये तत्पर हुए, यह एक शुभ संकेत है। संपूर्ण क्रांति का एक पहलू सतत क्रांति है, जो हमें सिखाता है कि क्रांति का एक स्थायी ढांचा बनाने के बदले समय-समय पर समग्र चिंतन करके वर्तमान चुनौतियों और भावी लक्ष्य तय करके आगे बढ़ना चाहिये। समाज के हर क्षेत्र में जिस प्रकार संकट बढ़ रहा है और लोकशक्ति कमजोर हो रही हे, ऐसे में यह चिंतन परम आवश्यक है।


आज मंहगाई 90 प्रतिशत लोगों को छूने वाला महासंकट है, जिससे गरीब लोग और गरीब तथा अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं। कुटीर उद्योग उजड़ रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जल, जंगल जमीन पर बड़ी- बड़ी कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है। बड़े पैमाने पर विस्थापन जारी है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों का व्यापारीकरण हो रहा है। मुख्य रूप से सेना, अधिकारी और बड़े उद्योगों की मदद पर सरकारी पैसा खर्च हो रहा हैं देश के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर होने वाला खर्च मुख्यत: देशी-विदेशी कंपनियों की मदद के लिये किया जा रहा है। इस बजट में भी बड़े उद्योगों की मदद कम करने के बदले जनता पर बोझ बढ़ाया गया है। वित्त मंत्री जनप्रिय (पोपुलरिस्ट) कदम का कड़ाई से विरोध कर रहे हैं। सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्थिति और भी खराब है। शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने से समाज के एक बड़े वर्ग का भविष्य समाप्त हो गया है। चिकित्सा में भी समाज को बाँट दिया है। बाजारवाद के दबाव में टी0वी0, फिल्म, पत्र - पत्रिकायें आदि अपसंस्कृति उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रही है। महिला उत्पीड़न भी बढ़ रहा है और बाजारवादी शोषण भी। समाज में जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद गंभीर संकट के रूप में पनप रहा है । ये संकट दूरगामी तथा व्यापक प्रभाव वाले हैं। उपभोक्तावाद के चलते व्यापक भ्रष्टाचार फैल रहा है जो सर्वव्यापी और सत्ताधारियों का सबसे बड़ा हथियार हैं।

सबके मूल में राजनीति है। एक तो यह संसदीय लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही पर आधारित है, पर चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी के कारण 10 प्रतिशत वोट पाकर भी जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। राजनीति के कारण सम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद आदि तेजी से बढ़ रहे हैं। ऊपर से न्यायपालिका का भ्रटाचार राजनीति में गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहा है। सबसे दुखद है लोकतंत्र पर पूँजीपतियों का कब्जा। आज आधे से ज्यादा सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। ऐसे में 80 प्रतिशत गरीबों को आरक्षण की जरूरत है। चुनाव में होने वाला विशाल खर्च राजनीतिज्ञों को पूंजीपतियों की गुलामी के लिये मजबूर कर रहा है।

प्राय: सभी राजनीतिज्ञ दल पूंजीपतियों, उद्योगपतियों से पैसा लेते हैं, सिर्फ मात्रा का अंतर है। इसलिए नीतियों का अंतर समाप्त होता जा रहा है। नेता जानते है कि पैसा, गुंडा, जाति आदि के आधार पर चुनाव जीता जा सकता है। इसलिए जनता की आवाज का उन पर असर नहीं होता है। ऊपर से पैसा कमाने के लिये नेता और अधिकारी व्यापक भ्रष्टाचार में शामिल रहते हैं, जो नीचे तक जाता है। इससे जनता की आवाज दब जाती है और पैसे वाले लोग जो चाहे करवा लेते हैं। इस प्रकार लोकतंत्र पर पूंजीतंत्र का संपूर्ण कब्जा हो गया है।

भारत में ही नहीं विदेशो में भी पूंजीपति अपनी इच्छा से लोकतंत्र का दुरूप्रयोग कर रहे हैं। संसदीय लोकतंत्र की जननी इग्लैण्ड में अनेक सांसदों पर पूंजीपतियों के दलाली की जाँच चल रही हैं। अमेरिका ने इराक पर हमला जनता के हित में नहीं पेट्रोल कंपनियों के दबाव में किया था। अनेक छोटे-मोटे लोकतंत्र को तो बनाना (केला जैसा) लोकतंत्र ही कहा जाता है। भारत में तो मात्र एक करोड़ में सांसद बिकते रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र को पूंजीपतियों के कब्जे से निकालना ही सबसे पहले जरूरी है।

पैसा, गुंडा, जातिवाद आदि में फंसे लोकतंत्र को बचाना आज 1974 से ज्यादा कठिन है। जो भी चुनाव जीतना चाहेंगे उन्हें उपरोक्त साधनों का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिये यह जरूरी है कि हम न्यायपालिका, चुनाव प्रक्रिया, सत्ता के विकेन्द्रीयकरण आदि के द्वारा लोकतंत्र में सुधार लाने की कोशिश करें। यदि चुनाव खर्च घटा दिया जाये तथा सरकार चुनाव खर्च का वहन करे तो अमीरों का शिंकजा कमजोर होगा। इसी प्रकार से अन्य सुधारों के लिये राष्ट्र व्यापी आंदोलन करने की जरूरत है। मीडिया पर भी पूंजीपतियों का नियंत्रण कमजोर करना आवश्यक है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने घरौंदो से ऊपर उठकर एक राष्ट्रीय संगठन का निर्माण करें जो आन्दोलनों का एक गठजोड़ मात्र न होकर कार्यकर्ता आधारित केंद्रीय संगठन हो। हम अपने संगठन में पूर्ण लोकतंत्र बनाये रखे तथा आंतरिक मतभेदों को स्वीकार करें, पर आम सहमति के आधार पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा करें, लेकिन किसी राजनैतिक दल का समर्थन या विरोध तथा हिंसा से हमें दूर रहना होगा। आज भी देश की जनता का विश्वास गैरदलीय आन्दोलनकारियों पर हैं।

राम शरण गिरधारी

भ्रष्टाचार के जाल में फंसा राष्ट्र

आज इस संसार में चारों तरफ भ्रष्टाचार विद्यमान हैं। भ्रष्टाचार से हम अपने राष्ट्र को बचा नहीं सकते हैं। क्योंकि कुछ भ्रष्टाचार ऐसे है, जो लोग भ्रष्टाचार को रोकने वाले हैं, वो ही लोग भ्रष्टाचार करते है। पुलिस जब किसी आतंकवादी को पकड़ती है तो उससे रूपये या रिश्वत लेकर उसे छोड़ देती है और गरीब व्यक्ति को आतंकवादी बनाकर, उसे जेल में बन्दकर, उसे यातनायें देती है। इस जगह पर भ्रष्टाचार ने कार्य किया कि एक असली आतंकवादी रूपये या रिश्वत के कारण से सजा पाने से बच गया और एक गरीब व्यक्ति को सजा मिली। यह राष्ट्र की सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा भ्रष्टाचार है।

भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों के बीच भी भयंकर भ्रष्टाचार पनप रहा है। सरकारी अस्पतालों की दवाईया डॉक्टरों तथा अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारियों की जेबों में जा रहें हैं वे पैसा लेकर दवाओं को बेच रहें है। जब गरीब जनता दवा लेने सरकारी अस्पताल जाती है, तब वे लोग कहतें है कि दवा बाहर मैडिकल स्टोर से खरीद लो, सरकार, अस्पतालों को दवा नहीं भेज रहीं है। बताइये किसकी बात सत्य है क्योंकि लोहिया अस्पताल की दवाईया मैंने स्वयं डॉक्टरों साहब को अपनी जेबों में भरते देखा है, रोकने पर कहते है आप क्या कर लेगें। यह भ्रष्टाचार लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में विद्यमान है। अगर भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ तो आम गरीब जनता रोटी खरीदकर जिन्दा रहेगी या दवा खरीदकर। मुझकों यह जवाब गरीब जनता की सुरक्षा करने वाली सरकार दे। क्योंकि अधिकतर गरीब जनता के पास दवाईया खरीदने के रूपये नहीं होते और उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। जो कर्ज गरीब जनता के आत्महत्या का कारण बनता है। अस्पतालों की इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सरकार को उचित कार्यवाही करनी होगी क्योंकि ये भ्रष्टाचार गरीब बीमार लोगों की जान ले सकती है।

भ्रष्टाचार का यह रूप केवल यहीं तक सीमित नहीं है। जब आम जनता को यात्रा करने जाना होता है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी आदि चलाने वाले चालकों में भ्रष्टाचार अधिक पाया जाता है। आये दिन यात्रियों को भ्रष्टाचार से परेशान कर रहे है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी चलाने वाले लोग, सरकार द्वारा तय किये गये किराये से ज्यादा किराया लेते है, देने पर लड़ाई उतर आते है। और यात्रा करना आम जनता की लिये मजबूरी है। और यदि आम जनता या सरकार द्वारा यात्रा के समय हुए भ्रष्टाचार को रोका गया तो स्पष्ट हैं कि आम गरीब जनता का क्या होगा ? अगर गरीब जनता को अपने रोगी को दूर अस्पताल में ले जाना है तो उसको इस भ्रष्टाचार से कितनी मुश्किलें आती है। यह सरकार अच्छी तरह से जानती है।

भ्रष्टाचार केवल ज्यादा पढ़े लिखे लोग कर रहे है यह आपकी, हमारी एक प्रकार की भूल है अगर हम अनपढ़ लोगों के बीच जाकर देखे तो अनपढ़ लोगों में भी काफी भ्रष्टाचार विराजमान है भले ही इस भ्रष्टाचार से राष्ट्र के विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है,परन्तु अनपढ़ लोगों में जो भ्रष्टाचार है उससे उसके परिवार वालों का नुकसान निश्चित रूप से होता है। एक अनपढ़ व्यक्ति अगर दूध बेचता है एक लीटर दूध में दो लीटर पानी मिलाते हुए देखा गया है, और दूध को ऊँचे दाम पर बेचता है तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है एक अनपढ़ मजदूर अपने पैसे से शराब पीता है तथा पत्नी और बच्चों को मारता है तो क्या अनपढ़ व्यक्ति द्वारा भ्रष्टाचार नहीं है ? एक अनपढ़ व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों का खाना छिन कर शराब पी जाता हैं, तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? और उस अनपढ़ व्यक्ति के बच्चे अनपढ़ रह जाते है। और इस भ्रष्टाचार से उन बच्चों का केवल पढ़ने लिखने का अधिकार ही नहीं बल्कि उनके खाना खाने का अधिकार भी छिन लिया जाता है। यह भ्रष्टाचार अनपढ़ गरीब लोगों में ज्यादा पनप रहा है, तथा परिवार के परिवार नष्ट हुए जा रहे है और हम इस भ्रष्टाचार को जानते हुए भी इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते है तथा ऐसे अनपढ़ भ्रष्टाचारियों से उसके परिवार को बचा नहीं सकते है। उदाहरण के लिये मैंने तीन बच्चों को गुलाम हुसैन पूर्वा प्राथमिक विद्यालय में दाखिला दिला दिया १४ जुलाई २०१० को उन तीन बच्चों में से अर्चना (१३ वर्ष) नाम की लड़की के माता-पिता ने केवल अर्चना को विद्यालय जाने से रोका बल्कि उसे बुरी तरह से मारा-पीटा। मेर समझाने पर गरीबी का नाटक करते है। और अर्चना का पिता अवधेश वाल्मीकि 16 जुलाई 2010 को शराब पीकर सड़क पर गाली दे रहा था। जो अनपढ़ गरीब माँ-बाप अपने बच्चों को इसलिये नहीं पढ़ाते है क्योंकि वे गरीब है। परन्तु शराब पीने के लिये उनके पास पैसे है तो क्या यह बच्चों के प्रति भ्रष्टाचार नहीं हैं।

एक उदाहरण 16 जुलाई 2010 को एक माँ अपने एक बच्चे जिसका नाम मोना (7 वर्ष) था, उसको एक छोटी सी बात पर उठाकर जमींन पर पटक दिया, उसके मुँह से काफी खुन आधे घण्टे तक बहता रहा जब मैंने उसकी माँ से बच्चे को अस्पताल ले जाने को कहा तो वह बच्चे को मारने के लिये दौड़ाती है और कहती है, आपको इसको बचाने के लिए पैंसे मिलते होगे। तब मैंने उस बच्चे को बचाने के लिये चाइल्ड लाइन से मदद लेकर उसको लोहिया इमरजेंसी में इलाज कराया। उस बच्चे का मुँह इतना ज्यादा घायल है कि वह बच्चा लगभग एक सप्ताह तक खाना नहीं खा सकता। अब बताइये एक अनपढ़ माँ के द्वारा यह भ्रष्टाचार हैं कि नहीं, कि वे बच्चे को मार तो सकती है परन्तु विद्यालय नहीं भेज सकती है।

इसके अतिरिक्त अन्य रूपों में राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। जैसे राशन की दुकान पर भ्रष्टाचार राशन कार्ड धारकों को समय पर राशन देकर राशन को ऊँचे दामों पर बेचना है। और इस प्रकार पूरे राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। अगर सरकार या जनता द्वारा भ्रष्टाचार को रोका नहीं गया तो आम गरीब जनता का क्या होगा।

इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून बनाना होगा, और अगर कानून है तो भ्रष्टाचार को रोका क्यों नहीं जा रहा है ? परन्तु क्या हम सभी ऊपरी पहल दिशा निर्देश का ही इंतजार करते रहेंगे या फिर कई बातों को लेकर भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास भी शुरू करेगें जैसा कि कानून में वर्णित है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून समाज के प्रगतिशील मूल्यों को दर्शाता है। इन मूल्यो को बढ़ावा मिलना हम सभी के सामूहिक प्रयास से ही संभव है।

किरन