
पिछली पोस्ट में बताया ही था कि कैसे और क्यों एक आम भारतीय को न्याय पाने के लिए सिर्फ़ 320 साल ही प्रतीक्षा करनी है । आज इन आंकडों पर नज़र डालिए , ये आंकडे फ़िर साबित कर रहे हैं कि हमारी सरकार न्याय व्यवस्था को चुस्त दुरूस्त करने के लिए सचमुच ही कितनी गंभीर है ।उससे पहले ये बताता चलूं कि सभी इस बात को लगभग मान चुके हैं कि न्याय में विलंब का सबसे बडा कारण है देश में अदालतों की कमी और रिक्त पडे पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति न होना ।
राजधानी दिल्ली से शुरू करें तो यहां पर सिविल जजों के 125 पद तथा जिला जजों के 21 पद खाली हैं । बिहार में ये तो मात्र 289 पद ही खाली पडे हुए हैं ,पंजाब की निचली अदालतों में 206 पद , हरियाणा की अदालतों में भी 206 पद , छत्तीसगढ की निचली अदालतों में 170 पद, राजस्तान में 172, मध्यप्रदेश में 108, जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 256 . पद ही खाली पडे हैं । बस बाकी पूरे बचे भारत के अन्य राज्यों का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं । रुकिए जरा ..चलते चलते जरा एक और तथ्य तथा आंकडे पर नज़र डालते जाईये . । अभी हाल ही में एक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने कहा कि " किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए हर छोटे बडे फ़ैसले के खिलाफ़ अगर इसी तरह यहां पर विशेष अनुमति याचिका स्वीकार की जाती रही तो एक दिन इनके बोझ से ढह कर खुद सर्वोच्च न्यायालय ही ढह जाएगी । "
आंकडों के अनुसार पिछले वर्ष ही सर्वोच्च न्यायालय में कुल 70,000 विशेष अनुमति याचिकाएं दाखिल की गईं । जबकि अमेरिका की सर्वोच्च न्यायालय एक साल में सिर्फ़ 100 से 120 मुकदमों और कनाडा की अदालत तो सिर्फ़ 60 मुकदमों की सुनवाई करती है ।
तो देश की आम जनता को अब ये खुल कर पता होना चाहिए कि यदि वो अदालत पहुंच कर फ़टाफ़ट किसी न्याय की उम्मीद कर रहे हैं तो कतई ये उम्मीद न पालें क्योंकि खाली कुर्सियां फ़ैसले नहीं किया करतीं ।
नोट :- सभी आंकडे आज दैनिक जागरण के दिल्ली संस्करण में छपी खबर से साभार लिए गए हैं ॥
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