Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार अनमाप अनियंत्रित

सुप्रीम कोर्ट ने कल पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा आयकर निरीक्षक मोहनलाल शर्मा को बरी किए जाने को चुनौती देते हुए प्रस्तुत की गई सीबीआई की याचिका को स्वीकार करते हुए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की है। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। विशेष रूप से आयकर, बिक्रीकर और आबकारी विभाग में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है। पीठ ने व्यंग्य करते हए कहा कि सरकार भ्रष्टाचार को वैध क्यों नहीं कर देती ताकि हर मामले में एक राशि निश्चित कर दी जाए। ऐसा किया जाए कि यदि कोई व्यक्ति मामले को निपटाना चाहता है तो उससे ढाई हजार रुपये मांगे जा सकते हैं। इस तरह से हर आदमी को पता चल लाएगा कि उसे कितनी रिश्वत देनी है। अधिकारी को मोलभाव करने की जरूरत नहीं है और लोगों को भी पहले से ही पता होगा कि कि उन्हें बिना किसी फिक्र के क्या देना है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी देश में मौजूद वर्तमान तंत्र के चेहरे पर एक कालिख है जिसे चाहने पर भी साफ नहीं किया जा सकेगा। हो सकता है यह टिप्पणी न्यायालय के रिकॉर्ड का भाग न बने, लेकिन माध्यमों ने इसे स्थाई रूप से रिकॉर्ड का भाग बना दिया है। इस टिप्पणी ने स्पष्ट कर दिया है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जितने भी उपाय सरकार द्वारा आज तक किए गए हैं वे सिर्फ दिखावा मात्र हैं। उन से भ्रष्टाचार के दैत्य का बाल भी बांका नहीं हो सका है। हाँ दिखावे के नाम पर हर वर्ष कुछ व्यक्तियों को सजाएँ दी जाती हैं। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो-जो भी उपाय किए गये वे सभी स्वयं भ्रष्टाचार की गंगा में स्नान करते दिखाई दिए।

कोई तीस पैंतीस वर्ष पहले तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-अभियान भी चले लेकिन उन की परिणति ने यह सिद्ध कर दिया कि मौजूदा व्यवस्था के चलते भ्रष्टाचार का कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता है। अब तो यदि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई जन-अभियान की आरंभ करता दिखाई पड़े तो लोग उस की मजाक उड़ाते हैं। खुद न्यायपालिका भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है, अपितु वहाँ भी इस की मात्रा में वृद्धि ही हो रही है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल सरकार पर ही नहीं समूची राजनीति और व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है। यह संकेत दे रही है कि इस देश की मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट कर के एक नई व्यवस्था की स्थापना आवश्यकता है। देखना यही है कि उस के लिए देश कब खुद को तैयार कर पाता है।

अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत

विगत आलेख क्या हम न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से पलायन का मार्ग नहीं तलाश रहे हैं ? पर तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ आईँ।संगीता पुरी जी ने कहा कि 'सजा गल्‍ती की निरंतरता को रोकने के लिए दी जाती है .. न्‍याय के क्षेत्र में होनेवाली देरी और खर्च के कारण तो उतने दिनों तनाव में रहने से तो अच्‍छा है .. एक दो बार हुए किसी की गल्‍ती को कुछ लोगों के हस्‍तक्षेप से सुलह करवाकर माफी वगैरह मांग मंगवाकर समस्‍या को हल कर लिया जाए !!' काजल कुमार ने कहा 'जब न्यायव्यवस्था बढ़ते मुक़दमों को नहीं निपटा पा रही है तो हमें वैकल्पिक उपायों के बारे में सोचना होगा. मसलन ओम्बडसमैन व राजीनामा जैसी संस्थाओं को मज़बूत करना होगा ताकि ये न्यायालयों के स्थानापन्न का रूप ले सकें.' उन्हों ने यह भी कहा कि 'आज हालत ये है कि निचले न्यायालयों को एक मिनट के लिए छोड़ भी दिया जाए तो उच्च-न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के सम्मुख अधिकांश मामले ऐसे आते हैं जिनमें कानून की व्याख्या को कोई सवाल नहीं होता किन्तु उन्हें यही जामा पहना कर पेश किया जाता है. जबकि, इन न्यायालयों को इस तरह के मुक़दमों को सरसरी नज़र में खारिज कर देना चाहिये.' इस के अलावा ताऊ रामपुरिया जी की राय थी कि 'असल में कानून में जो झौल है उसे खत्म करने की जरुरत है, ये मेरा अपना निजी सोच है जिससे न्यायिक प्रक्रिया उलझे नही और त्वरित न्याय मिल सके.'
संगीता जी ने जो राय रखी वह एक आम व्यक्ति की सोच है जो अपर्याप्त और न्याय प्राप्त करने के कष्टप्रद न्यायप्रणाली के प्रभाव से उत्पन्न हुई है। न्याय के क्षेत्र में केवल अपराध ही नहीं आते हैं। आज जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस में न्याय प्राप्ति की आवश्यकता नहीं हो। वस्तुत स्थिति यह है कि देश के तमाम सक्षम लोग कानून का उल्लंघन करते हैं और सोचते हैं जो वे करेंगे वही न्यायपूर्ण है। लेकिन साधारण लोगों के पास इस अन्याय से उबरने का एक मात्र उपाय न्यायिक संस्थाओँ के पास जाना है। यदि वहाँ भी न्याय न मिले और समझौते की राह दिखाई जाए जहाँ फिर उसी अन्याय का सामना करना पड़े तो इस वैकल्पिक न्याय व्यवस्था से क्या लाभ है। सही और उचित न्याय तो वही है जो न्यायालय में सबूतों, सचाई और कानून के आधार पर प्राप्त हो। इस तरह वैकल्पिक व्यवस्थाएँ वास्तविक न्याय से पलायन करने की एक तदर्थ व्यवस्था है। अमरीका में दस लाख की आबादी के लिए 110 जज नियुक्त हैं जब कि हम भारत में केवल 11 से काम चला रहे हैं। इस तरह अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत है। क्या भारत जैसा देश दस प्रतिशत न्याय से काम चला सकता है? और यह कहा जा सकता है कि हम न्याय कर रहे हैं। वैकल्पिक प्रणालियों का लाभ भी तभी मिल सकता है जब मूल न्यायिक व्यवस्था पर्याप्त हो। तब समझौते से निकाले गए हल अधिक न्यायपूर्ण हो सकेंगे। क्यों कि तब उन के पीछे सोच यह नहीं होगी कि वह न्याय की लंबी, उबाऊ, थकेलू और मारक व्यवस्था से पिंड छुड़ाने के लिए समझौता कर लेना बेहतर है।
ताऊ जी की सोच हमेशा यथार्थ होती है। उन्हों ने कानून के झोल की बात कही है। जब रस्सी पूरी तनी हुई नहीं बंधी होती है तो उस में झोल आ जाना स्वाभाविक है। आज भारतीय अदालतों के पास अमरीका की अदालतों से दस गुना भार है। ऐसी अवस्था में कानून में झोल दिखाई देना स्वाभाविक है। अदालतें जितना काम कर सकती हैं करती हैं। बाकी को आगे टालने के लिए कानून के झोल का सहारा लेती हैं। यह झोल भी पर्याप्त अदालतों के बिना दूर किया जाना संभव नहीं है।

''अंधेर नगरी-चौपट राजा'' और सर्वत्र फैली हुई अराजकता।

संसद और विधानसभाएं कानून बनाती हैं। ये कानून किताबों में दर्ज हो जाते हैं। बहुत सारे पुराने कानून हैं और हर साल बहुत से कानून बनते हैं। नयी परिस्थितियों के लिये नये कानून। पुराने कानूनों में संशोधन भी किये जाते हैं। इसलिए कि समाज और देश को सही तरीके से चलाया जा सके, कोई अपनी मनमानी नहीं कर सके।
पर इन कानूनों को कोई न माने तो?
न माने तो, अगर कोई अपराधिक है तो पुलिस चालान करेगी। मुकदमा चलेगा। सजा होगी। सजा के डर से कानून को मानना ही होगा। अगर कानून सिविल है, तो आप या जिस को भी किसी के काम से परेशानी हो वह अदालत के पास सीधे जा कर दावा कर सकता है और कानून की बात को मनवा सकता है।
पर सजा या फिर कानून की बात मनवाने का काम तो तभी होगा न? जब अदालत फैसला देगी?
फिर एक अदालत के फैसले के बाद भी तो अपील है, दूसरी अपील है?
तब वह दिन कब आएगा? जब कानून की पालना हो पाएगी?
जब आखरी अदालत का फैसला हो कर लागू होगा
और आखिरी अदालत का फैसला होने में ही कम से कम बीस पच्चीस बरस तो लग ही जाएंगे।
फिर कौन संसद और विधानसभाओं के बनाए कानूनों की परवाह करता है।
क्या इन विधानसभाओं और संसद को नहीं सोचना चाहिए कि उन के बनाए कानूनों को लागू कैसे कराया जा सकेगा?
शायद ऐसा सोचने की वहां कोई जरूरत महसूस ही नहीं करता है? वहाँ केवल यह सोचा जाता है कि संसद में या विधानसभाओं में वे ऐसे दिखें कि अगले चुनाव में वोट लिए जा सकें।
यह तो अब सब के सामने है कि देश में अदालतें कम हैं। जरूरत की 16 परसेंट भी नहीं। तो क्या इन्हें बढ़ाया नहीं जाना चाहिए?
यह समय की आवश्यकता है कि देश में अदालतों की संख्या तुरंत बढ़ाई जाए। एक लक्ष्य निर्धारित किया जाए कि आज से पाँच, दस, पन्द्रह बरस बाद देश में इतनी संख्या में अदालतें होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य तीव्रतम गति से न्याय प्रदान करना होना चाहिए। किसी भी अदालत में कोई भी मुकदमा दो साल से अधिक लम्बित नहीं रहना चाहिए। तभी हम विकसित देशों के समान सुचारु रूप से राज्य व्यवस्था को चला पाऐंगे। कानून और व्यवस्था को बनाए रख पाऐंगे। और यह नहीं कर पाए तो, निश्चित ही हम अपने देश में कानून को न मानने वालों की बहुसंख्या और ''अंधेर नगरी-चौपट राजा'' पाऐंगे, और पाऐंगे सर्वत्र फैली हुई अराजकता।

देश को जरूरत है 77,664 जजों की

भारतीय न्याय प्रणाली की विश्व में अच्छी साख है, लेकिन यह अपने ही देश में अपनी ही जनता का विश्वास खोती जा रही है। देश में शिक्षा व जागरूकता में वृद्धि होने से समस्याओं के हल के लिए अधिक नागरिक अदालतों की शरण में आने लगे हैं और मुकदमों की संख्या बढ़ी है। मुकदमों की संख्या वृद्धि से निपटने में हमारी न्याय प्रणाली अक्षम सिद्ध ह रही है। इस का सीधा नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश अदालतें मुकदमों से अटी पड़ी हैं। मुवक्किल अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं, मुकदमों में तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं, पर उन के फैसले नहीं हो पाते।

20 दिसम्बर को भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन् ने मुम्बई में एक समारोह में बताया कि तीन करोड़ अस्सी हजार से अधिक मुकदमें देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित हैं, जिन में 46 हजार से अधिक सुप्रीम कोर्ट में, 37 लाख से अधिक हाई कोर्टों में तथा ढ़ाई करोड़ से अधिक निचली अदालतों में फैसलों के इन्तजार में हैं। मुकदमों का निपटारा करने का कर्तव्य हमारा (न्यायपालिका का) है, हमने पिछले दो सालों में निपटारे की गति को 30 प्रतिशत बढ़ाया है। लेकिन दायर होने वाले मुकदमों की संख्या भी बढ़ी है जिस से लम्बित मुकदमों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में केवल 14000 जजों के पद स्वीकृत हैं जिन में से केवल 12000 जज कार्यरत हैं 2000 जजों के पद जजों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में खाली पड़े हैं। 500 मुकदमों के निपटारे के लिए हमें एक जज की जरूरत है। इस तरह लम्बित मुकदमों के निपटारे के लिए हमें 77,664 जजों की आवश्यकता है। हमें ज्यादा अदालतें और ज्यादा बजट चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश के ताजा कथन से हमारी न्याय प्रणाली की बेचारगी प्रकट होती है, और एक नंगी हकीकत सामने आती है। हमारे देश में मुकदमें निपटाने के लिए जितनी अदालतों की आज जरुरत है, उस की केवल 16 प्रतिशत अदालतें हमारे पास हैं। हम उन से ही काम चला रहे हैं। ऐसी हालत में शीघ्र न्याय की आशा किया जाना व्यर्थ है ही न्याय की गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है।

हमारी न्यायप्रणाली की सारी समस्याओं और फैसलों में देरी, वकीलों की हड़तालें, भ्रष्टाचार आदि बीमारियों की जड़ यहीं है। न्याय प्रणाली को साधन मुहय्या कराने की जिम्मेदारी केन्द्न और प्रान्तीय सरकारों की है जिसे पूरा करने में वे बुरी तरह असफल रही हैं।

सरकारों की जनता के प्रति जिम्मदारियों का राजनीति में बहुत उल्लेख होता है। जनता को आकर्षित करने वाले मुद्दों को राजनैतिक व चुनाव घोषणा पत्रों में स्थान भी मिलता है लेकिन जनता को सीधे प्रभावित करने वाले न्याय के मुद्दे पर न तो कोई राजनैतिक दल बात करता है और न ही करना चाहता है, चुनाव घोषणा पत्र में स्थान पाना तो बहुत दूर की बात है। अनजान कारणों से हर कोई इस मुद्दे से बचना और इसे जनता से छुपाना चाहता है। हमारे मुख्य न्यायाधीश इस ओर संकेत तो करते रहे मगर उसे खुल कर कभी भी सामने नहीं लाए।

यह पहला मौका है जब मुख्य न्यायाधीश ने खुल कर इस हकीकत को बयान किया है, या उन्हें करना पड़ा है। क्योंकि अब हालात ऐसे हैं कि स्थिति को नहीं सम्भाला गया तो न्याय प्रंणाली पूरी तरह चरमरा जाएगी और घोर अराजकता हमारे सामने होगी।

न्याय की दुर्दशा देखें

न्याय की दुर्दशा देखें नवभारत टाइम्स के इस संपादकीय में .......

29 Nov 2007, 1914 hrs IST
कागजी घोड़े देश में अदालती कार्यवाहियों पर कागजी घोड़े हावी हैं, जिनकी सुस्ती ने इंसाफ की रफ्तार भी धीमी कर दी है। इन घोड़ों ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त के साथ खूब खेल किया। इन्हीं की मेहरबानी से कभी उनके जेल से बाहर आने में विलंब हुआ तो कभी इन्हीं के कारण वे दो महीने तक जेल जाने से बचे भी रहे। टाडा कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के बाद जब वह जेल गए तो सुप्रीम कोर्ट ने 24 अगस्त को उन्हें अंतरिम जमानत दी और कहा कि फैसले की कॉपी मिलते ही उन्हें अदालत में समर्पण करना होगा। लेकिन जेल से छूटने में उन्हें तीन दिन लग गए, क्योंकि टाडा कोर्ट ने जेल अधिकारियों तक दस्तावेज नहीं पहुंचाए थे।

खैर, उसके बाद फैसले की कॉपी मिलने में दो महीने लग गए। यानी संजय दत्त इतने दिनों तक बाहर रहे। 22 अक्टूबर को कॉपी हासिल होने के बाद उन्होंने आत्मसमर्पण किया और जेल चले गए। अब जब उन्हें जमानत मिल गई तो जेल से निकलने में दो दिनों की देर हो गई। वजह थी- कागजी कार्यवाही में विलंब। ऐसा तब हुआ जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ईमेल और फैक्स के जरिए अपने निर्णय की सूचना संबद्ध अधिकारियों तक पहुंचाई थी। लेकिन इस देश के सारे कैदी संजय दत्त की तरह भाग्यशाली नहीं हैं।

पिछले दिनों सूचना के अधिकार कानून के तहत जो जानकारी मिली है वह हैरत में डालती है। एक अदालत के आंकड़े बताते हैं कि एक जेल में सैकड़ों ऐसे कैदी हैं जो अपनी सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में सिर्फ इसलिए अपील नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास जजमेंट की कॉपी नहीं है। मुंबई के फोर्ट स्थित सेशन कोर्ट द्वारा पिछले पांच सालों में 2247 लोगों को सजा सुनाई गई, लेकिन इनमें से संभवत: 44 फीसदी लोगों को फैसले की कॉपी नहीं मिली। इसके बगैर वे अपील नहीं कर सकते। वे आज भी जेल में जजमेंट की कॉपी का इंतजार कर रहे हैं, जबकि सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद फैसले की कॉपी नि:शुल्क प्राप्त करने का उन्हें कानूनी हक है। जब एक कोर्ट का यह हाल है, तो देश के हजारों न्यायालयों में क्या स्थिति होगी। अदालती अमले के ढीले-ढाले रवैये और कामकाज के पुराने तौर-तरीके के कारण असंख्य लोगों के लिए न्याय ठिठका पड़ा है। न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन इस तरह के छोटे पहलुओं की प्राय: अनदेखी की जाती है। अगर थोड़ी तत्परता दिखाई जाए तो बहुतों को राहत मिल सकती है।